सियासी दाव-पेंच में उलझा आंदोलन
दिल्ली गैंग-रेप प्रकरण
एक ओर दिल्ली गैंगरेप में पीड़ित मेडिकल की छात्रा की हालत दिन पर दिन
बिगड़ती जा रही है। दूसरी ओर कांस्टेबल सुभाष तोमर की मौत की गुत्थी और भी उलझती
ही जा रही है। दो दिन पहले लोगों का आंदोलन देख कर आशा की एक उम्मीद जगी थी। लेकिन
सुभाष तोमर की मौत साथ ही यह उम्मीद बुझती ही जा रही है। प्रशासन और सियासत मिलकर सुभाष
तोमर की मौत को इस तरह भुनाने लगे है जैसे यह गैंगरेप से भी बड़ा कांड हो।
मेडिकल छात्रा के साथ हुई बलात्कार की दर्दनाक घटना इसलिए लोगों को
छोटी लगने लगी है कि वह सबकुछ सहकर भी आज जिन्दा है। लेकिन कांसटेबल सुभाष तोमर कथित तौर पर आंदोलनकारियों की चोट से मर गए इसलिए
बड़ी है। पुलिस बेरहमी और बेशर्मी से आंदोलनकारियों पर लाठियां बरसाई तब सरकार और
प्रशासन मौन रही। लेकिन जैसे ही सुभाष तोमर की मौत हुई उस एक ही चोट बहुत शर्मनाक बना दिया गया। इसे इस
तरह तुल दिया जा रहा जैसे वे आंदोलनकारियों को फांसी के फंदे पर लटकाकर ही दम लेंगे।
जब मेडिकल छात्रा के साथ गैंगरेप की घटना हुई तब सरकार और प्रशासन के
आंखों में शर्म नाम की चीज नहीं थी। जो कुछ लोगों नें आंसू बहाए भी वह अब साबित हो
गया कि मगरमच्छ के आंसू थे। देश की जनता जिसे पीड़ित छात्रा से सहानुभूति थी वह भी
जोश में साथ निभा कर शर्मिंदा हो गए है। पहले उनपर हिंसा भड़काने के आरोप लगे। फिर
सियासत के एक महानुभाव ने राष्ट्रपति भवन के सामने आंदोलन करना गलत बताया और अब
पुलिस कांसटेबल की मौत के आरोप में आंदोलनकारियों की छि छि हो रही है।
आंदोलन की सबसे बड़ी वजह लड़की आखिर जाये तो कहां जाए किससे अपनी मन
की बात सुनाए? मां बाप जो जन्म दिए है उनसे भी अगर वह अपनी बलत्कार और छेड़खानियों
की दर्द भरी कहानी सुनाती है तो वे फिर से उसकी आजादी को छिनकर घर की
चाहरदिवारियों में बंद कर देंगे। पहली बार जब इतना साहस बटोरकर अपनी कहानी सबको
सुनाने की हिम्मत जुटाई तो भी उसे मुँह की खानी पड़ी।
यह वहीं सरकार है जो कभी महिला सशक्तिकरण का नारा देती रही है। चाहरदीवारियों
में बंद लड़कियों को मधुर सपने दिखाकर बाहर लाई। लेकिन आज उसकी आबरु और जान की
हिफाजत करने के बजाए उस पर लाठियां बरसाई आंसू गैस के गोले फेंके। महिलाओं कि
शक्ति जो अभी पनपना ही शुरु हुआ है उसे खुद सरकार और प्रशासन मिलकर कुचल रहे हैं।
महिलाओं की छोटी सी मांग है कि ऐसे कानून बनाए जाए कि सड़को और बसों
में उनके साथ हो रहा दुर्व्यहार न हो। लेकिन सरकार और कुछ बुद्धिजीवी कड़े कानून
के हमेशा ही खिलाफ रहे है। इसमें भी वे ऐसे ही गोटियां खेल रहे है। लोगों से उनका
कहना है कि कड़े कानून बन जाने से क्या बलात्कार और छेड़खानी रुक जाएगी? उनकी बस
चले तो कानून की किताब फाड़कर कचड़े की ढ़ेर पर फेक देंगे। हमेशा ही वे कहते आए है
कि कानून बदलने से कुछ नहीं होता है सबकुछ मानसिकता बदलने पर टिका है।
यह सच है कि मानसिकता समाज की धारा बदल देती है। लेकिन मानसिकता
बदलेगी कैसे। आंदोलन नहीं होने से या कड़े कानून नहीं बनने से। जो लोग कड़े कानून
विरोध करते है यह उन्हें तब समझ में आएगी जब ऐसी घटनाएँ उनके साथ होगी। बिना कानून
के समाज में जो हस्र कमजोर और बेबस लोगों का है वहीं हस्र महिलाओं का है। महिलाओं
के इस बढ़ रहे कदम को मजबूत करने लिए कड़े कानून की सख्त जरुरत है। कड़े कानून न होना
यह बताता है कि यह समाज बलात्कार और छेड़खानी जैसे अपराधों को छूट दे रखा है।
आंदोलन को भटकाने का काम सिर्फ सरकार और प्रशासन ही नहीं कुछ गिने-चुने
बुद्धिजीवियों ने भी की है। जब वर्षो से घुट रहे लोग जगकर आंदोलन की शुरुआत किए तो
वे उन्हें अपने में सुधार करने का नसीहत देकर गलत ठहरा दिया गया। ऐसे बुद्धिजीवियों का हमेशा यही काम रहा है कि
ऐसे हो रहे काम को वैसे और वैसे हो रहे काम को ऐसे को ऐसे करने की नसीहत देकर
जनभावनाओं की खिल्ली उड़ाते आए है।
जो महिलाएँ वर्षो बलात्कार और छेड़खानी के साथ साथ सामाजिक दुर्व्यवहारों
को भी सहती आ रही थी। रुह कँपा देनेवाली दिल्ली गैंगरेप की घटना उनके सहन की लकीरे
पार कर आंदोलन के लिए मजबूर कर दिया। वर्षो से दबी आक्रोश इस तरह फुट सामने आई
जिसे प्रशासन के लिए दबा पाना मुश्किल था। कड़कती ठंड,आंसू गैस के गोले,पम्प की ठंड
पानी और बेरहमी की मार भी उनकी आवाज को नहीं दबा पा रही थी। इस आवाज में सामाज बदल
देनेवाली अभूतपूर्व ताकत थी। लेकिन आखिर में हमेशा की तरह इसे भी दबाने का एक वजह
कांस्टेबल सुभाष तोमर के मौत के रुप में मिल ही गया।
( जनसत्ता के 4 जनवरी के अंक में पृष्ट संख्या 6 पर प्रकाशित लेख )
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