“मीडिया ही बचाएं इस खतरें से”
पर्यावरण संरक्षण में मीडिया की भूमिका
हालत यह है कि गंगा-यमुना भी मैली हो गई है, 27 प्रतिशत हवा प्रदूषित हो गया है, 20 प्रतिशत ध्वनि शोर बन गया है, अस्पतालों में 80 प्रतिशत लोग प्रदूषित जल से बीमार है।
उसी प्रकार 15 से 20 प्रतिशत लोग दूषित हवा से बीमार है। ग्लोबल वार्मिंग और ध्वनि
प्रदूषण का खतरा अलग से मंडरा रहा है। यह दौर पर्यावरण पर खतरा नहीं ब्लकि खतरे
में जीवन का दौर है। हर ओर त्राहिमाम मचा है। लोगों की नजरें अब मीडिया पर टिकीं
है। पर्यावरणविद् भी कह रहे है दृ“लोकतंत्र
का चैथा स्तम्भ मीडिया ही बचाएं इस खतरें से”।
पर्यावरण संरक्षण की शुरुआत जून 1972 को स्टॉकहोम में इंदिरा गांधी ने अपनी
प्रसिद्ध वाक्य दृ“गरीबी सबसे बड़ी प्रदूषक है” से की। संयुक्त राष्ट्र संघ के सम्मेलन
से निकली यह धारणा आज भी मौजूद है। जंगल काटने और चुल्हे में आग जलाने के लिए
गरीबों को पर्यावरण का प्रदूषक माना जाता है। लेकिन मार्च 1974 में उत्तराखंड की महिलाओं द्वारा किया
गया “चिपको आंदोलन” यह साबित करता है कि गरीब पर्यावरण के
प्रदूषक नहीं है।
दूसरी ओर आरोप-प्रत्यारोप का एक दौर पुराना हो
चला है। असली प्रदूषक कौन?
बहस का एक मुद्दा बन बैठा है। गरीब
कॉरपोरेट जगत को प्रदूषक ठहराते है कॉरपोरेट गरीबों को। कानून की माने तो अब तक
पर्यावरण कानून तोड़ने के लिए गरीब ही सबसे ज्यादा सजा के भुगतभोगी बने है। इससे
इस निष्कर्ष पर आसानी से पहुंचा जा सकता है कि गरीब ही पर्यावरण प्रदूषक है। लेकिन
72 के चिपको आंदोलन से लेकर इस सदी के
हरदा, खडवा का जल सत्याग्रह और ओडिशा का
पास्को के खिलाफ मजदूर किसानों का सत्याग्रह प्रदूषक का परिभाषा बदल दिया है।
गरीबों पर्यावरण का उपयोग करते और उसका संरक्षण
करते आसानी से देखा जा सकता है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर गरीबों का साहस हमें
यहां तक देखने को मिला है कि वे चिपको आंदोलन से लेकर अब तक पर्यावरण के लिए अपनी
जान की भी बाजी लगाते आ रहे है। विश्व की विशालतम स्टील कंपनी ‘पास्को’ के खिलाफ सत्याग्रह को ही ले। पास्को उड़ीसा के जिस क्षेत्र में लगाया
जा रहा है वह वनस्पतियों और प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है। उस क्षेत्र में उद्योग
स्थापित करने से जंगल और जमीन को भारी नुकसान होगा। इसके बावजूद पर्यावरण एवं वन
मंत्रालय ने प्लांट लगाने की अनुमति दी। जो लड़ाई सरकार को लड़नी चाहिए वह लड़ाई
मजदूर किसानों को लड़नी पड़ रही है। इससे गरीबों पर विकास बाधित करने का आरोप शुरु
हो गया है।
जहां तक बात पर्यावरण को विकास का रोड़ा
माननेवाली है पर्यावरणविदों का कहना है कि सुनियोजित विकास किया जाए तो विकास से
पर्यावरण की क्षति नहीं होगी। हमारे देश में पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण नियत्रंण
के लिए कानूनों का भारी बस्ता हमारे पास है।
लेकिन उनका पालन करवाने की इच्छाशक्ति नहीं है। सरकारी तंत्र की उदासीनता
और सरकार की लाहपरवाही के कारण ही पर्यावरण की क्षति होती है। सरकार का कहना है कि
देश के विकास के लिए औद्योगिक विकास आवश्यक है। दुनिया के हर मुल्क में बड़े-बड़े
उद्योग स्थापित हैं। लेकिन भारत में सरकारी मशीनरी इतनी भ्रष्ट हो चुकी है कि यहां
पर्यावरण कानूनों का खुलेआम उल्लंघन होता है। भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक
की रिपोर्ट ने भी समय समय पर इसकी पोल खोलती रही है।
70 के
दसक से ही विकास या पर्यावरण का पाखंड शुरु हो गया है। 70 के बाद जब बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियां लगने
लगी, कचड़े गिराने के लिए सबसे सस्ती साधन
नदियों का उपयोग हुआ, खुले आकाश में बेपरवाह होकर
फैक्ट्रियों के धुआं निकलते। हजार पेड़ काटकर एक फैक्ट्री लगाया जाता और एक
फैक्ट्री हजार प्रकार का प्रदुषण फैलाता। इस प्रदूषण के पहले शिकार बने गरीब इसका
विरोध करते तो विकास बनाम पर्यावरण का मुद्दा शुरु हो जाता है। जब-जब ऐसे मुद्दे
आते गरीबों पर विकास में रोड़ा अटकाने का आरोप मढ़ दिया जाता है। सरकार और
आंदोलनकारियों के बीच हो रही इस जंग में मीडिया ने कभी धुसने की कोशिश नहीं की। 2012 का पेन पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध लेखक
सिद्धार्थ देब की राय में भारतीय मीडिया राष्ट्र का सजग प्रहरी बनने की बजाय
औद्योगिक घरानों और राजनीतिक दलों का चीयरलीडर्स बनकर रह गया है। अपने उपन्यास ‘द ब्यूटीफुल एंड द डैम्डरूए पोट्रेट ऑफ न्यू इंडिया’ में देब ने मीडिया को पर्यावरण के
मुद्दे पर असफल बताया है।
लेकिन मीडिया को पूरे सिरे नकारा भी नहीं जा
सकता। पर्यावरण संतुलन बिगड़ते जाने की इस समस्या की गंभीरता को देखते हुए अब
मीडिया का एक हिस्सा इस ओर पहले की अपेक्षा अधिक ध्यान देने लगा है। ‘डाउन टू अर्थ’ पत्रिका की संपादक सुनीता नारायण तो
पहले से ही इस मामले में ऐतिहासिक काम कर रही हैं। हाल में सिरसा के सामुदयिक
रेडियो के माध्यम से कई सालों से जल बचाओ अभियान चलाया जा रहा एनडीटीवी, ने भी यह जिम्मेदारी उठाई है। पर्यावरण
बचाने में न्यू मीडिया का योगदान भी काफी सराहनीय है। वाटर पोर्टल और दुधवा लाईव
जैसे कुछ वेबसाइटस पर पर्यावरण आंदोलन की शुरुआत हुई है। इससे उम्मीद जगी है कि
आनेवाले कुछ समय में अन्य मीडिया हाऊस भी इस दिशा में जल्दी ही आगे आएंगे। मीडिया
में पर्यावरण के लिए जग रही इस जागरुकता से पर्यावरणविदों और आम लोगों की उम्मीदें
पूरी होती नजर आ रही है।
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