क्या पट्टे/संविदा पर कृषि आनेवाले समय की मांग है ?

      भारत में भूमि धारण क्षमता, दिन पर दिन बढ़ती जनसंख्या के कारण घटती जा रही है। जोत छोटे होने के कारण उत्पादन की अपेक्षा कृषि लागत बढ़ती जा रही है।  कृषि दिन पर दिन अलाभकारी होती जा रही है।  छोटी जोत वाले किसानों का बहुत बड़ा वर्ग इस समस्या से जूझ रहा है। ऐसे में समस्या के समाधान के लिए संविदा कृषि और पट्टे पर भूमि देने को बढ़ाबा दिया जाना सार्थक साबित होगा। लेकिन इसे कुछ चुनौतियों का सामना भी करना पड़ सकता है।

      संविदा कृषि और पट्टे पर कृषि से किसानों पर पड़नेवाले सकारात्मक और नाकारात्मक प्रभाव निम्नलिखित हैं :-
(क) सकारात्मक प्रभाव :-
  1. जैसा कि स्पष्ट है जोत छोटा होने से लगत बढ़ती जा रही है। इस समस्या का समाधान संविदा और पट्टे पर कृषि करने से हो जाती है। 
  2. जो लोग ऐच्छिक रूप से कृषि नहीं कर रहे हैं वे बेहतर अवसर की तलाश करेंगे और अतिरिक्त लाभ कमा सकेंगे।
  3. संविदा कृषि होने से भूमि का एक भड़ा हिस्सा जो खेतों की आड़ के रूप में होता है कृषि उपयोग में आ जाएगा। 
  4. सरकार को इस तरह की खेती से प्रबंधन के स्तर पर लाभ मिल सकेगा।  
(ख) नाकारात्मक प्रभाव:- 
  1. संविदा या पट्टे पर कृषि करने वालों का मुख्य उद्देश्य उत्पादन हो सकता है, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता का ह्रास बढ़ने की संभवना है। 
  2. किसानों की आय नियत हो जाएगी।  जो किसान ज्यादा लाभ कमा सकते थे, उनसे अवसर छिन जायेगा। 
  3. इससे 'राइट टू च्वाइस' अर्थात इच्छित फसल, या अतिरिक्त फसल उत्पादन के रूप में पशुचारे आदि जो किसानों की रीढ़ की हड्डी साबित होती है, इसे गहरा धक्का लगेगा।
  4. साथ ही किसानों का बड़ा वर्ग जो कृषि से विस्थापित होगा, उनके लिए रोजगार उपलब्ध कराना भी अन्य चुनौती होगी।

      छोटे जोत वाले किसानों की आय इतनी कम होती है कि उन्हें सब्सिडी भी उबार नहीं पाती।  भारत सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी जैसे - यूरिया सब्सिडी, डीजल सब्सिडी आदि से किसानों को कम ही लाभ मिल पाता है। जहाँ तक उत्पादन खरीद के लिए 'न्यूनतम समर्थन मूल्य' (Minimum Support Price या, एम. एस. पी.) का लाभ है, इससे भी ये छोटे किसान वंचित रह जाते हैं। छोटे किसानों के पास उत्पादन का कुछ ही हिस्सा बेचने के लिए होता  है, जिसे बेचने के लिए वे खरीद स्थल पर ले जाने में असमर्थ होते हैं, और बिचौलिओं के हाथों उत्पाद बेचना पड़ता है। इस प्रकार ऐसे किसान योजनाओं का लाभ भी नहीं प्राप्त कर पाते हैं। 

      दूसरी ओर सरकार द्वारा दी जा रही खाद्य सुरक्षा में नियत खाद्यान्न जैसे- गेहूं, चावल ही वितरित किये जाते हैं, अर्थात 'राइट टू च्वाइस  ' यहाँ उपलब्ध नहीं होता है। छोटे जोत वाले किसान सरकार पर निर्भर न रहकर खाद्यान्न का उत्पादन तो कर लेते हैं, लेकिन अन्य आवश्यक चीजों की व्यवस्था नहीं कर पाते हैं। इसलिए वर्तमान खाद्य सुरक्षा प्रणाली से वे ज्यादा लाभ नहीं उठा पाते हैं, यहां तक कई बार औसा देखा जाता है कि वे इसे कम मूल्य पर बेच देते है। 

    छोटे जोत की उपरोक्त समस्याओं को देखा जाए तो यह अत्यंत ही गंभीर है। इसके लिए अभी तक सरकार द्वारा कोई ठोस कदम नहीं उठाये जा सके हैं। लेकिन 'प्रत्यक्ष लाभ हस्तानांतरण' (Direct Benefit Transfer- DBT) कुछ हद तक छोटे जोत के किसानों के लिए उपयोगी सिद्ध हुआ है। ऐसे छोटे जोत के किसानों को 'राइट टू च्वाइस' के माध्यम से मजबूत बनाया जा सकता है। 

      किसानों के हितों को ध्यान में रखते हुए संविदा या पट्टे पर कृषि को बढ़ावा देना लाभदायक साबित होगा। क़ृषि जो आज अधिकांश लोगों के लिए मजबूरी का व्यवसाय बन गई है, वे कृषि से छुटकारा पाकर अन्य कार्य कर अतिरिक्त लाभ कमा सकेंगे। आनेवाले दिनों में जोत और भी छोटे होंगे, दूरदर्शी सोच के साथ अभी से तैयारी उत्पन्न होनेवाली कई समसमयाओं का समाधान हो सकती है। सहकारी कृषि इसका एक और समाधान हो सकता है।

Comments

Anonymous said…
हाँ, कृषि को एक उद्योग के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है।

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