ऑर्गेनिक कृषि क्या समय की मांग है ? (Organic Agriculture Demand)

हरित क्रांति के फलस्वरूप संश्लेषित रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग हुआ है,  जिसके कारण पंजाब, हरियाणा जैसे राज्यों में अधिकांश कृषि भूमि का निम्नीकरण हो चुका हैयह प्रक्रिया लगातार जारी है। इसके विकल्प के रुप में हम जैविक कृषि को अपना सकते है। जैविक कृषि ऐसी कृषि है जिसमें संश्लेषित रसायनों का नगन्य अथवा बिलकुल प्रयोग नहीं होता है। इसमें जैव उर्वरक, कम्पोस्ट, हरी खाद आदि का प्रयोग करते हैं। इसप्रकार जैविक कृषि प्रकृति के अनुकूल कृषि पद्धति है। इस तरह की खेती से न केवल भूमि निम्नीकरण की समस्या को कम कर सकते हैं बल्कि पारिस्थितकी तंत्र का संरक्षण कर जैव विविधता का संरक्षण एवं संवर्धन भी कर सकते हैं।

जैविक कृषि हमारी परम्परागत कृषि के समान ही है। हम इसे वर्षों से अपनाते आ रहे थे लेकिन वर्मान समय में इस कृषि में तीव्र गति से गिरावट आई है। यह पुन: ऑर्गेनिक/जैविक कृषि व्यावसायिक रूप में शुरू हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद खाद्यान्नों की कमी ने हमें हरित क्रांति के लिए विवश किया, जिसमें रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग हुआ है। लेकिन समय के साथ इससे उत्पन्न होने वाले स्वास्थ्य की समस्याएं, पर्यावरणीय समस्याएं, भूमि निम्नीकरण आदि जैसे एक साथ कई चिंताओं को जन्म दिया है। 

जैविक कृषि में जैव उर्वरकों जैसे - एजोला, नील हरित शैवाल, एजेटोवैक्टर, एजोस्पाइरिलम, फॉस्फेट घुलनशील सूक्ष्म जीव (पीएसएम), एक्टिनोराइजय आदि का प्रयोग द्वारा मिट्टी की उर्वरता बढ़ाई जाती है। एजोला रेटेरीडोफाइटा समूह की एक तैरती हुई फर्न है। जो धान के खेतों में आसानी से उगकर वायुमंडलीय नाइट्रोजन का यौगिकीकरण एजोला में उपस्थित एनाविना नामक नील हरित काई के माध्यम से होता है, साथ ही एजोला में उपस्थित कार्बनिक पदार्थ अच्छी जैविक खाद का भी श्रोत है। वैसे ही नील हरित शैवाल - सायनोबैक्टीरिया विटामिन-12, ऑक्सीजन एवं एस्कार्बिक अम्ल स्थापित करते हैं जो धान के पौधों के वृद्धि में सहायक हैं। एजेटोबैक्टर और एजोस्पाइरिलमअति-शूक्ष्म जीवाणु हैं। ये वायुमंडलीय नाइट्रोजन को स्थिरीकरण करते हैं। पीएसएम मृदा में उपस्थिसत अघुलनशील फॉस्फेट को परिवर्तित कर क्षारीय मृदा की उर्वरता को बढ़ाता है एवं एकिटनोराइजा वृक्षों की जड़ों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण का कार्य करते हैं।

जैव उर्वरक (बायो-फर्टिलाइजर) वायु से मुक्त नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर पौधों के लिए उपयोगी बनाते हैं। जैव उर्वरकों में से कुछ दलहनी पौधों की जड़ों में पाए जाते हैं, जैसे - राइजोबियम, एजोटोबैक्टर आदि। कुछ जैव उर्वरक स्वतंत्र रूप से पाए जाते हैं। जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिए इन जैव उर्वरकों (सूक्ष्म जीवों) को किसी नमी धारक धूलिये पदार्थ (चारकोल, लिग्नाइट आदि) के साथ मिलाकर तैयार किये जाते हैं। यह प्रायः 'शुद्ध कल्चर' के नाम से बाजार में उपलब्ध है।

जैव उर्वरकों  के साथ कम्पोस्ट, वर्मी खाद आदि भी जैविक खेती के महत्वपूर्ण अंग हैं। वर्मी, अर्थात केंचुआ दीर्घावधि तक किसानों को लाभ पहुचाते हैं जिसके कारण इन्हें किसान मित्र के नाम से भी जाना जाता है।  इसप्रकार जैविक खेती में रसायनों के नगण्य प्रयोग से ही हम कृषि उपज बढ़ा सकते हैं। राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसानों ने इसे अपनाकर न केवल कृषि की उपज को बढ़ाया है बल्कि प्राप्त उत्पाद का अपेक्षाकृत ऊंची कीमत भी प्राप्त कर रहे हैं। सरकारी प्रोत्साहन से जैविक कृषि को अपनाने वाला पहला राज्य सिक्किम बना है।

जैविक कृषि के समक्ष कुछ चुनौतियाँ भी हैं जैसे - (1) प्रोत्साहन की कमी, (2) सरकारी स्तर पर इसके विकास के लिए संस्थाओं कमी, (3) आमजनों में जागरूकता की कमी आदि। अक्सर ऐसा पाया गया है कि इस आधुनिकता की दौड़ में हम पश्चिमी देशों का अनुकरण करते रहे हैं।  हमारी परम्परागत खूबियों का विकास इस उपेक्षा के कारण नहीं हो सका है। हरित क्रांति भी पश्चिमी देशों के प्रभाव से हुआ। हालाँकि हरित क्रांति का हमारे देश की अर्थव्यवस्था और खाद्य निर्भरता में महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिसे कभी नाकारा नहीं जा सकता। लेकिन इसके प्रतिकूल प्रभावों ने इसमें सुधार आवश्यकता को जन्म दिया है।

परम्परागत कृषि में प्रयोग होनेवाली हमारी परम्परागत जैव उर्वरकों का व्यवसायीकरण संभव नहीं हो सका है, जिससे हम इसका लाभ प्राप्त नहीं कर सके हैं। भूमंडलीकरण और विलुप्त हो रहे जैव विविधता के दौर में सम्पोषणीय विकास के लिए आज जैविक कृषि समय की माँग बन गई है। वैसे क्षेत्र जहाँ कृषि भूमि बंजर भूमि में  बदल गई है वहाँ किसान जैविक कृषि के माध्यम से उपजाऊ बनाने की कोशिश कर रहे अथवा उसके अनुरूप फसल चयन कर उत्पादन कर रहे हैं। इसप्रकार प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए हम जैविक कृषि से अपेक्षित लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं।

जैविक कृषि परम्परागत कृषि का  ही एक रूप है, जो व्यावसायिक रूप से कृषि के उत्पादन बढ़ाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान निभा सकता है। हालाँकि वर्तमान में जैविक कृषि का यह प्रचलन भी पश्चिमी देशों  से ही आया है। इसकी महत्ता और हमारे देश में इसकी जरुरत को देखते हुए सरकार भी जागरूक हुई है। मृदा स्वास्थय कार्ड और जैविक खेती सरकारी कृषि योजनाओं भी में शामिल किया गया है। "एपीडा" नाम से इसके लिए राष्ट्रीय स्तर की संस्था का भी गठन किया गया है।

मृदा स्वास्थ्य कार्ड, जैविक कृषि आदि को समुचित बढ़ावा दिया जाए तो कुछ राज्यों के अलावा देश के अन्य राज्यों में भी इस कृषि प्रणाली का विस्तार हो सकता है। इससे प्राप्त खाद्य पदार्थ से न केवल स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को दूर किया जा सकता है बल्कि पर्यावरणीय समस्याओं को भी दूर कर टिकाऊ विकास को प्राप्त किया जा सकता है। जैविक कृषि प्रकृति के अनुकूल कृषि है, जिससे पारिस्थितकी तंत्र का संरक्षण और संवर्धन किया जा सकता है। इसप्रकार जैविक कृषि से दीर्घावधि में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को कम किया जा सकता है, उत्पादकता बधाई जा सकती है, भुखमरी कम की जा सकती है, साथ ही किसानों एवं देश की आर्थिक स्थिति सुधारी जा सकती है। इससे कृषि लागत समय के साथ कम होती जाएगी और रासायनिक उर्वरकों पर किसानों की निर्भरता कम होगी।

भारत में जैविक कृषि की शुरुआत सामजिक संस्थाओं के माध्यम से की गई है। वांछित सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में यह अधिक प्रसारित नहीं हो सका है। वैसे क्षेत्र जो 1966-67 में हरित क्रांति से प्रभावित नहीं हुए थे, वहाँ आज भी रासायनिक उर्वरकों का उपयोग कृषि उत्पाद बढ़ाने का एक मात्र संसाधन मानते हैं और उर्वरकों का अंधाधुंध प्रयोग कर रहे हैं। ऐसे लोगों को समय रहते सरकारी और गैर-सरकारी स्तर पर प्रोत्साहन देकर हम उन्हें जैविक कृषि की ओर मोड़ सकते हैं। 

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