कामकाजी महिलाएं तथा घर की देखभाल (Working Lady and Home-Care)

       
       दफ्तर, घर, बच्चे, बूढ़े और अन्य परिवार के सदस्यों का बोझ एक अकेले स्त्री को उठाते हुए मैंने देखा है। यदि किसी मोर्चे पर वह कमजोर पड़ी है तो उसपर संस्कारों और आचरणों के प्रश्न चिन्ह भी लगते देखा है। फिर भी चेहरे पर मेकअप और ओठों पर लिपिस्टिक लगाकर मुस्कुराते देखा है।
       सच में गौर करें तो खेतों में कठिन से कठिन श्रम करने वाली महिला हो या किसी बड़े दफ्तर में कार्य करने वाली महिला, दोनों की परिस्थिति में समानता देखी जा सकती है। खेत से लेकर दफ्तर तक यदि स्त्री पुरुष के समान कठिन परिश्रम करके लौटे, तो भी घर आकर पुरुष जहां आराम फरमाते हैं, वहीं स्त्रियों पर कोई रहम नहीं होती। वह तुरंत एक मां होने का बोझ उठाती है, बहु होने का बोझ उठाती है और गृहिणी होने का भी बोझ उठाती है।
       गरीब परिवार की वे महिलाएं जो खेतों में मजदूरी/कार्य करती हैं, उन्हें कोई मातृत्व अवकाश नहीं मिलता, घर का बोझ भी उन्हें ही उठाना होता है, इसके बावजूद उनकी थाली में बचे-खुचे रोटी के चंद टुकड़े ही नसीब होते हैं। इतनी कम पोषाहार लेने के बाद भी इन महिलाओं की ऊर्जा हमें झकझोर कर रख देती हैं।
       दूसरी ओर पढ़ी-लिखी दफ्तर जाने वाली महिलाएं दफ्तर के वो 8-10 घंटे मिहनत के बाद घर आकर आराम नहीं करती, बल्कि वह हर कार्य जो आम महिला होने के कारण उस पर थोपी गई है उसे पूरा करना होता है। इसके बावजूद उस पर कोई रहम नहीं है, उसकी जरा सी चूक उसे बदचलन और कुसंस्कारी साबित कर सकती है।
       दरअसल, यह सोच बनी होती है कि महिलाएं भी यदि पैसा कामना शुरु कर दें तो उसकी सामाजिक प्रास्थिति मे सुधार होगा। लेकिन कमाने के बावजूद महिलाएं आज एक दूसरी समस्या जाल में फंसती जा रही हैं। उन्हें अब दोगुनी बोझ ढोने के बाद भी वह सामाजिक प्रास्थिति प्राप्त नहीं हो पा रही है जो पुरुषों को प्राप्त है।
       महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकड़े यह बताते रहते हैं कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा में दिन पर दिन बढ़ोत्तरी हुई है। ये आंकड़े दो तरह की संभावनाएं हमारे सामने रखते है पहली महिलाओं की प्रास्थिति दिन पर दिन बदत्तर होती जा रही है, और दूसरी आज महिला हिंसा के मामले दर्ज होने लगे है।
       महिला चिंतन की विश्व प्रसिद्ध हस्ती सिमोन द ब्यूबॉयर (Simon De Beauvoir) लिखती हैं कि- ' स्त्री होती नहीं बना दी जाती हैं'। विश्व के समाजों का अध्ययन यह बताते हैं कि अधिकांश समाजो में महिलाओं की प्रास्थिति एक समान है। भारत की एक महिला के साथ दुर्व्यवहार की कहानी जर्मनी की महिला से मिलती है, यह एक इत्तेफाक़ नहीं है। अपने आस पास गौर करें तो महिलाओं की दैनिये परिस्थिति वर्षों से चली आ रही है।
       समाजशास्त्री इसे 10 हजार वर्षों से महिलाओं की परिस्थिति का परिणाम मानते हैं। इसे आरंभिक आदिवासी समाज, कृषक समाज और औद्योगिक समाज के रूप में महिला दासता की प्रवृति को देखा जा सकता है। बेशक आज महिला हिंसा के आंकड़े बढ़ रहे है, लेकिन यह महिलाओं की परिस्थिति में सुधार को दर्शाता है।
       हम अपने दो- तीन पीढ़ी पूर्व दादी/नानी के परिस्थिति का आंकलन करें तो स्थिति आज से भी भयावह दिखेगी। लेकिन उस वक्त महिला हिंसा के कम आकड़े नहीं बल्कि आंकड़े ही नहीं हैं। यह वह वक़्त था जब संविधान/कानून नहीं बल्कि धर्म का शासन था। कोई भी उन महिलाओं के साथ खड़ा नहीं था, जिसके कारण उन्होंने अपनी प्रस्थिति को स्वीकार ही कर लिया था। यदि ऐसी महिला हिंसा की घटनाएं होती, तो भी कोई उसे सुनने वाला नहीं था।
       धर्मशास्त्रों ने तो महिलाओं को पूरी तरह पंगु ही बना डाला या फिर यों कहें कि पंगु समाज की उपज थे ये धर्मशास्त्र। दरसल साहित्य किसी व्यक्ति द्वारा ही गढ़ा गया है, जो उस वक्त की महिलाओं  की प्रस्थिति को प्रतिबिंबित करता है। आज का कानून महिलाओं को समानता और स्वतंत्रता का अधिकार देकर ना केवल उन्हें अपनी परिस्थिति को सुधारने का मौका देती है, बल्कि  इसके तहत बने कुछ कानून महिलाओं से  हो रही  दुर्व्यवहारों  के रोकथाम कर सहारा भी प्रदान कर रही है। वर्तमान समाज महिलाओं को पुरुषों के समक्ष खड़ा करने के लिए महिला आरक्षण जैसे मुद्दों पर खड़ा है।
        बेशक महिलाओं की  परिस्थिति में सुधार ला कर उन्हें आर्थिक गतिविधियों तक तो पहुंचा दिया गया है, पर 'कामकाज के साथ घर की संभाल' जैसी प्रवृत्ति महिलाओं को मानसिक और शारीरिक क्षति पहुंचा रही है। अब वक्त है महिलाओं के प्रति इस निर्दय प्रवृत्ति को दूर किया जाए।        इसके लिए समाज में जागरूकता आवश्यक है। नई पीढ़ी में ऐसी प्रवृत्ति का प्रवाह ना हो इसके लिए हमें अभी से बच्चों के मस्तिक में स्वच्छ बीज बोने होंगे। घर परिवार से लेकर स्कूल-कॉलेजों तक को इसमें भागीदारी निभानी होगी। स्त्री की शिक्षा, स्वास्थ्य व रोजगार को मजबूती प्रदान करनी होगी। अगली पहल समाज को करनी होगी तब जाकर काम-काजी महिलाओं को शायद न्याय प्राप्त हो सकेगा।               

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