विडम्बनाओं और विरोधाभासों का अंत : महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment)

       'वर्षों से जहाँ औरतें देवी की स्वरुप मानी जाती हैं वहीं मंदिरों में उनका प्रवेश वर्जित रहा है।' यह विडम्बना नहीं तो और क्या है? कैसे विश्वाश किया जाए इन रीति-रिवाजों पर? जब मन किया देवी बना दिया, जब मन किया अछूत बना दिया। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि स्त्री को इस समाज ने अपनी आवश्यकतानुसार जी भरकर भोगा है। सवाल तो यही है यदि भोग की वस्तु ही मानना था, तो देवी क्यों बनाया? शायद इसलिए कि बुद्धिप्राप्त इस स्त्री नामक जीव का उपभोग किया जा सके।

       यह अनावश्यक नहीं एक षड़यंत्र है, महिलाओं को अपने वश में कर उसका शोषण करने के लिए। कोई भी रिति-रिवाज उठाकर देखें तो वहां लाभ से ज्यादा औरतों की विवशता है, जैसे - सिंदूर लगाना, ससुराल जाना, ससुराल की घोर शोषणकारी रश्में-रिवाज अगैरह-बगैरह। रिवाजें तो यहाँ तक भी है सूरज उगने से पहले उठना, झाड़ू लगाना, सबसे बाद में खाना, कोई नहीं खाए  तो मत खाना।

       बेशक कुछ लोग इन रिवाजों को रिवाज के स्थान पर वैज्ञानिकता और तर्क को पेश कर सही ठहरा सकते हैं।  लेकिन फिर भी वर्तमान समय में परिस्थिति कुछ सुधरी है, और सुधार की ओर अग्रसर है। मैं आज महिलाओं पर हुए इस षड़यंत्र को समझ पा रही हूँ, यह भी सुधार  का एक संकेत है।

       महिलाओं पर हिंसा बढ़ी है इसलिए नहीं कि स्थिति पहले से बदतर हो रही है इसलिए कि महिलाएं आज अपना हक मांग रही है। बलात्कार के मामले पहले से ज्यादा दर्ज हुए  हैं, इसलिए नहीं कि बलात्कार बढ़ गया बल्कि इसलिए कि महिलाएं आज बलात्कार को जुर्म मान रही हैं, इसे सामने ला रही है, मुकदमा दर्ज कर रही हैं। यह सब हमारी सामाजिक प्रवृति में सुधार  का फल है जो अब इस मामले को पहले की अपेक्षा संवेदनशीलता से लिया जा रहा है। 

       लेकिन इस सुधार की भी अजीब विडम्बना है। आज जहाँ महिला सशक्तिकरण पर जोर  है, महिलाएं पढ़-लिख रही हैं, बराबरी का अधिकार माँग रही है वहीं इस सुधार के बदले उनके प्रति प्रतिशोध बढ़ा है। काम-काजी औरतें घर की संभाल के दबाव से पीड़ित हैं। वही स्त्रियां रश्मों-रिवाजों और गैर बराबरी की चली आ रही प्रवृति को तोड़ने के बदले अमानवीय व्यवहार से भी पीड़ित हैं।

       किसी परिवार से या समाज से पहली बार कोई लड़की घर से बाहर शहर में रहकर पढ़ने का बीड़ा उठाए तो उसके लिए उसे शाबाशी नहीं, जिल्लत और धिक्कार सहना पड़ता है। चाहे कोई भी छोटी से छोटी सुधार की बात क्यों न हो, उसके लिए उसे प्रतिशोध सहन करना पड़ता है। भले वह आत्मसम्मान के लिए दहेज का बहिष्कार हो या शादी के बाद वह छोटी-छोटी रश्में, जैसे - विदाई के लिए दिन रखना, मायके से रश्मों-रिवाजों पर कपडे भेजना अगैरह-वगैरह का विरोध पर भी परिवार-समाज उससे प्रतिशोध के लिए उठ खड़ा होता है।


       चाहे नवविवाहित औरत को कितना भी अपमानित किया जाए लेकिन यदि उसने एक छोटी सी चूक भी की तो परिवार के बड़े तो बड़े छोटे भी प्रतिशोध लेने उठ खड़े होते हैं। यह वही भारतीय समाज है, जहाँ बड़ों का आदर करना सिखाया जाता है पर विडम्बना यही है कि महिला हिंसा में सिर्फ घर के बड़े सास-ससुर ही नहीं बल्कि रिश्तों में छोटे ननद और देवर भी शामिल होते हैं। उस नवविवाहिता जिसका अपना बसा-बसाया घर उजड़ा हो और नया अभी बसा भी न हो ऐसी त्रासदी का लाभ उठाकर यह भारतीय समाज उसे शोषित करता है।


       अपना नया घर बसाने और थोड़ी सम्मान और प्यार की लालसा रखने वाली नवविवाहिता के जिस्म के जर्रे-जर्रे से ऊर्जा निचोड़ ली जाती है, उन रीति-रिवाजों के नाम पर जो सूरज उगने से पहले जग जाए और रात में सोने से पहले सबके धोए कपड़े समेटकर, बिस्तर पर दूध पहुंचाकर, पैर दवाकर सबको सबका मन प्रसन्नचित न कर दे। घर के ये तमाम कार्य उसके नाम ऐसे कर दिया जाता है जैसे घर में नौकरानी आ गई हो, उसके होते कोई किसी कार्य को छू नहीं सकता,इससे उनका अपमान हो जाता है। इस बीच यदि वह बीमार पड़ जाय, तो छुट्टी का कोई प्रावधान नहीं है और ना ही कोई सैलरी का। अस्पताल जाने के लिए उसे लोगों पर आश्रित रहना पड़ता है।  यदि लोग उदार हुए तो अस्पताल तो ले जाएंगे लेकिन यही उस पर बहुत बड़ा एहसान हो जाता है। उसके लिए सेवा तो दूर आराम भी हिंसा का कारण बन जाता है। लोग इस कदर हिंसा पर उतर जाते हैं कि घर का कार्य तो कर ही सकती है कौन सा बोझा ढोना है? या  कार्य के डर से बहाना है। लेकिन कहने को ये समाज बहु को घर की लक्ष्मी कहता है।  ये अजीब दास्ताँ है, अजीब विडम्बना है, घर की लक्ष्मी की।


       जर्मनी की लेखिका सिमोन द बोउवार हो या भारत की प्रभा खेतान, सबने अपने-अपने समाजों में यही पाया है। आज मैत्रेयी पुष्पा, तस्लीमा नसरीन, वर्तिका नंदा, मनीषा पांडे जैसे बहुत सारी लेखिकाएं भी हैं जो अपने लेखन, अपने विचारों से, पुस्तकों के द्वारा, सोशल मिडिया आदि पर जागृति का अलख जगा रही हैं।  संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्था भी महिलाओं को खूंटे में बंधी गाय-जानवर के जीवन से उपर उठाने के लिए प्रयासरत है। नोबेल पुरस्कार विजेता और संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव (1997-2006) कोफ़ी अन्नान के अनुसार - 'विकास के लिए महिलाओं के सशक्तिकरण से बेहतर कोई उपकरण नहीं है।' वहीं भारतीय नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के अनुसार - 'महिलाओं की शिक्षा और साक्षरता मृत्यु दरों को कम करती है।'

       यह सच है कि महिलाओं का उत्थान सिर्फ एक महिला के लिए ही नहीं बल्कि उसके परिवार और पूरे समाज के विकास के लिए आवश्यक है। जो महिलाओं को केवल जंतु मात्र समझकर शोषित और प्रताड़ित करते हैं, यह न भूलें कि वह अपने परिवार के हिस्से को प्रताड़ित कर रहे हैं, वह उस महिला के साथ-साथ परिवार की शिक्षा, स्वास्थ्य और आनेवाली पीढ़ियों को अंधकार की गलियों में ढ़केल रहे हैं।

उत्तर भारतीय समाज की अपेक्षा दक्षिण भारतीय समाज अपनी महिलाओं को काम करने की आजादी देने सहित अन्य महिला सशक्तिकरण का मार्ग अपनाकर अपेक्षाकृत बेहतर विकास कर रहे हैं। लेकिन फिर भी आज हम महिलाओं की प्रस्थिति पर नजर दौरायें तो एक ओर फाइटर प्लेन चलाने वाली पूर्ण सशक्त महिलाएं तो दूसरी ओर घरेलु हिंसा, बलात्कार, दहेज प्रताड़ना और यौन हिंसा से पीड़ित अशक्त महिलाएं नजर आती हैं। 'द हिन्दू' का वह अखबार शायद ही कोई भूल पाया होगा, जिसमें एक तरफ सम्पूर्ण विश्व की परिक्रमा करने वाली INS-तरिणी की गाथा थी तो दूसरी तरफ कठुआ-बलात्कार की हृदयविदारक खबर थी। 

       इतिहास के पन्ने पलटे तो जहाँ हमें लोपमुद्रा, मैत्रेय, गार्गी जैसी विदुषी मिलती हैं तो वहीं बाल-विवाह, सती प्रथा और पर्दा प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयाँ भी। मध्यकालीन इतिहास में घटित जौहर की कथा दिल दहला देने वाली दास्ताँ में से एक है। हालाँकि इस काल में राजिया सुल्तान जैसी महिला शासिका भी हुई हैं। 


       आधुनिक भारतीय इतिहास में राजाराम मोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फूले, सावित्री बाई फूले जैसे समाज सुधारक भी हुए जिन्होंने सती प्रथा का उन्मूलन, विवाह की आयु में वृद्धि, विधवा विवाह और स्त्री शिक्षा जैसे सामाजिक सुधार के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए। इस काल में रानी लक्ष्मीबाई का योगदान भी अविस्मरणीय है। 


       महिला शक्ति का सबसे सुंदर दृश्य गाँधी जी के आंदोलन में दिखता है। असहयोग आंदोलन हो या सविनय अवज्ञा आंदोलन, महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। भारत छोड़ो आंदोलन में नेतृत्व करनेवाली अरुणा आसफ अली हो या फिर उषा मेहता, जिन्होंने गुप्त रूप से इस आंदोलन के दौरान रेडयो समाचार का संचालन किया। पूर्वोत्तर की वीरांगनाओं में रानी गिडालु का नाम अविस्मरणीय है। हजारों महिलाओं ने आजादी के लिए कुर्बानी दी चाहे जनजातीय क्षेत्र की अनपढ़ महिलाएं हों या पढ़ी-लिखी सरोजनी नायडु, सुचेता कृपलानी जैसी महिलाएं।


       वर्ष 1947 में आजादी तो मिली लेकिन उन औरतों को क्या मिला ? आजादी के आज 72 साल बाद भी महिलाएं पुरुषों के बराबरी के लिए तड़प रही हैं, खाने-पीने, रहने, कपड़ें पहनने, बाहर घूमने जैसी अपनी मूलभूत आवश्यकताओं पर अपनी मर्जी के लिए तरस रही हैं। वीरांगनाओं की कैसी अजीब दास्ताँ है जो विदेशियों के तो छक्के छुड़ा दी लेकिन अपने ही घर में गुलामी की जंजीरों में बंध गई। 


       कई बार लोग तर्क देते हैं - यह उनकी शारीरिक बनावट के कारण  है, उनकी शारीरिक कमजोरी के कारण है। लेकिन वे भूल जाते हैं कि आदि काल से ही महिलाओं ने अपना लोहा मनवाया है, चाहे वाद -विवाद में शंकराचार्य को परास्त करने वाली गार्गी हो या मध्यकाल की महिला शासिका राजिया सुल्तान, या फिर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाली रानी लक्ष्मीबाई हो या आज की अवनी चतुर्वेदी जैसी फाइटर प्लेन उड़ाने वाली महिलाएं। खेल के क्षेत्र में पी. वी. सिंधु हो या मैरी कॉम या फिर हिमा दास और साक्षी मल्लिक जैसी महिला खिलाड़ी, जिसने देश का नाम रौशन किया है। इतना ही नहीं 'अग्नि-4' मिसाइल जिस पर हमारे भारत को नाज है इसकी परियोजना निदेशक 'टेसी थॉमस' नामक एक महिला ही थी। 


       हाँ, महिलाएं कमजोर साबित हुई है, अपनी शारीरिक या मानसिक कमजोरी के कारण नहीं बल्कि भावनात्मक कमजोरी के कारण। महिलाओं का अपने समाज और परिवार के प्रति वो बेइंतहा प्रेम ही है, जो उसे अपने अधिकार छोड़ देने पर विवश कर देता है चाहे पिता के घर में हो या पति के। ये वीरांगनाएं यदि आजादी के लिए घोर दमनकारी ब्रिटिश शासन से लोहा ले सकती है तो समाज और परिवार का यह दमन क्या चीज है? महिलाओं को भावनात्मक रूप से मजबूत होना होगा, अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होना होगा। जिस प्रकार छोटी-छोटी ईंट-पत्थरों से ईमारत बनती है, उसी प्रकार छोटी-छोटी शोषण का विरोध ही महिलाओं को आजादी दिला सकेगा। 


       विरोधाभास तो यही है कि यहाँ के लोगों को लोकतांत्रिक देश पसंद है लेकिन लोकतांत्रिक परिवार नहीं। वास्तव में भारत सरकार कानूनी रूप से महिलाओं के उत्थान के लिए हर संभव प्रयासरत है। यह अनायास नहीं है कि भारतीय संविधान मूल अधिकार के रूप में महिलाओं को समानता और स्वतंत्रता का अधिकार देता है। नीति-निदेशक तत्वों में समान कार्य के बदले समान वेतन का प्रावधान करता है। अनुच्छेद-42 में महिलाओं को प्रसुति सहायता तथा अनुच्छेद-51 (क) में भारत के सभी लोगों से कहता है ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रिओं के सम्मान के विरुद्ध हो। 


       आजादी के बाद महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए दो प्रमुख कार्य किये गए - (1) सामजिक सुरक्षा - हिंसा, प्रताड़ना आदि के विरोध कानून, और (2) सामाजिक संरक्षण - आरक्षण, सहायता आदि के द्वारा सहयोग प्रदान करना। इसके लिए समय-समय पर कई कानून पारित किए गए। जिसमें प्रमुख है -हिन्दू विवाह अधिनियम - 1955, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम - 1956, अनैतिक देह व्यापार अधिनियम - 1956, दहेज निषेध अधिनियम - 1961, मातृत्व लाभ अधिनियम - 1961, PC & PNDT एक्ट-1994, राष्ट्रिय महिला आयोग अधिनियम - 1990, घरेलु हिंसा अधिनियम - 2005, कार्य स्थल पर यौन उत्पीड़न निषेध अधिनियम - 2013 आदि। 


       परिवार और समाज से ज्यादा सरकार महिलाओं को कानूनी रूप से प्यार और सम्मान दे रही है। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ, उज्ज्वला योजना, महिला स्वयं सहायता समूह, महिलाओं के प्रशिक्षण एवं रोजगार कार्यक्रम, सुकन्या समृद्धि योजना, वन स्टॉप सेंटर, महिला शक्ति केंद्र आदि सरकार द्वारा चलाए जा रहे महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में प्रमुख योजनाएं हैं। डॉ. अम्बेदकर के भाषण का यह अंश आज भी चीख रहा है - ' कब तक हम विरोधाभासों के इस जीवन को जीना जारी रखेंगे? कब तक हम अपने सामाजिक-आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम लम्बे समय तक नकारते रहे, तो हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को संकट में डाल देंगे।' स्वतंत्रता की चाह रखनेवालों, गणतंत्रता की हवा में सांस लेनेवालों जीओ और जीने दो।


       सशक्तिकरण विडम्बनाओं और विरोधाभासों को दूर करने के लिए है। हालांकि इसकी रफ्तार इतनी धीमी है कि आजादी के 72 साल बीत गए; जाने और कितने साल लगेंगे या फिर समाज एक और क्रांति की मांग कर रहा है? एक और आजादी की मांग कर रहा है? मन में उठ रहे यह सवाल महज एक सवाल नहीं भविष्य है। यह गर्भ में पल रहे भ्रूण की भांति औरतों के मन में पलने लग चुका है, एक दिन इसे अवतरित होना ही होगा।


       वह दिन दूर नहीं जब सबरीमाला मंदिर महिलाओं का स्वागत करेगा, तीन तलाक, दहेज प्रथा, घरेलु हिंसा, योन हिंसा आदि कुप्रथाएं खत्म होगी। इसी के साथ खत्म होगी शोषणकारी रिति-रिवाजें भी, जिसने समाज को घुन की तरह खोखला कर दिया है। औरतें तीज और करवा चौथ की जगह स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस का आनंद लेंगी। सिंदूर और सात फेरों की जगह विवाह पंजीकरण के द्वारा करेंगी, सूरज उगने से पहले वह जगेंगी जरूर लेकिन, अपने पतियों के साथ, दोनों मिल बांटकर काम करेंगे, रात में सोने से पहले कपड़ें समेटना, दूध का ग्लास पहुँचाना, बच्चे संभालना और पैर दबाना जैसे कार्य सभी एक-दूसरे के लिए करेंगे। सम्मान और प्यार भी होगा, जबरदस्ती नहीं, सम्मान के बदले प्यार और प्यार के बदले सम्मान। 

Comments

Ramesh Kumar said…
Definition of empowerment: The process of gaining freedom and power to do what you want or to control what happens to you.
In the same manner process to provide freedom and power of political, social, economical, educational and health issues to women is called women empowerment. As per United Nations Population Fund (UNFPA), it is essential for the achievement of sustainable development. The full participation and partnership of both women and men is required in productive and reproductive life, including shared responsibilities for the care and nurturing of children and maintenance of the household.
Anonymous said…
उत्कृष्ट लेखन. क्या आप कृपया कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डाल सकते हैं? जैसे-ससुराल जाना, सुबह झाड़ू लगाना आदि।

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